ब्रह्मांड की उत्पत्ति
बिग- बैग परिकल्पना(Big-Bang Hypothesis)
इस परिकल्पना का प्रतिपादन (Abbe Lemaitre,1931,Gamow,1948 and Dicke,1964) वैज्ञानिकों ने किया। इनके मत अनुसार ईलेम (ylem) द्वारा नर्मित बादल के कण के प्रतिकण के परस्पर टकराव से हुए विस्फोट के फलस्वरूप वर्तमान पदार्थ के हाइड्रोजन एवं हीलियम के परमाणु बने।हाइड्रोजन परमाणु के इसी बादल ने ब्रह्मांड का प्रारंभिक पदार्थ बनाया। यह पदार्थ गैस के अनेक पिंडो में बट गया। अनेकों गैसीय पिंडों से आकाशगंगा एवं सितारों या नक्षत्र के विकास का क्रम प्रारंभ हुआ।
निहारिका परिकल्पना(nebular Hypothesis)
इस परिकल्पना का प्रतिपादन (kant ,1755,and Laplace,1796) ने किया। इनके मत अनुसार सौर परिवार का निर्माण आकाशगंगा के अधिक तप्त एवं घूर्णीय गैसीय पिंडों से लगभग 5 या 6 अरब वर्ष पहले हुआ था।ईलेम (ylem) के बादल ने संघनित होकर सूर्य का निर्माण किया। उसके बाद सूर्य से पिंडों के टूट कर अलग नए ग्रहों का निर्माण हआ आधुनिक खगोल के मत अनुसार सूर्य के चारों ओर एक वृताकार बादल का घेरा बना इसके बाद सूर्य से पिण्डों के टूटने एवं अलग होने पर अनेक ग्रहों का निर्माण हुआ। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण एवं घूर्णन के प्रत्येक वृत्त के परमाणुओं (atoms) ने एकत्रित होकर सौर परिवार (solar system) का एक-एक ग्रह निर्मित किया और इसी क्रम में पृथ्वी का निर्माण हुआ।
जीवन की उत्पत्ति (ORIGIN OF LIFE)
पृथ्वी के निर्माण के बाद पृथ्वी पर जीवन उत्पन्न हुआ लेकिन जीवन क्या हैहै ? जीव की उत्पत्ति कब, कहाँ और कैसे पृथ्वी पर हुई ? इन सभी प्रश्नों के बारे में हम जानकारी प्राप्त करेंगे , वैज्ञानिकों दार्शनिकों ने संबंध में अपने-अपने मत दिए संगठित पदार्थ की सदैव सक्रिय एवं परिवर्तनशील दशा को जीवन कहते हैं। जीवन के विषय में बहुत से वैज्ञानिकों ने अपने अपने मत दिए हैं जो निम्न प्रकार हैं
कॉस्मोजोइक सिद्धान्त (Cosmozoic Theory)
Cosmozoic Theory के अनुसार "जीवन अमर" है। इसकी समाप्ति या उत्पत्ति का सवाल ही नहीं उठता, ब्राह्मांड की उत्पत्ति के समय ही निर्जीव और सजीवों की उत्पत्ति हुई। रिचटर ने ब्रह्माण्डवाद में कहा कि ब्रह्माण्ड के किसी अज्ञात भाग या नक्षत्र से, अन्तरिक्षी गर्द के साथ सरल जीवों के बीजाणुओं या अन्य दूसरे प्रकार के कणों के रूप में जीवद्रव्य अकस्मात ही आदि पृथ्वी पर पहुंचा। हेमहोज ने कहा कि पृथ्वी पर / जीवद्रव्य सूक्ष्मजीवाणुओं के रूप में उन उल्का पिण्डों के साथ आया जो अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर गिरे।
वैज्ञानिक फ्रांसेस्को रेडी का मत
इटालियन का प्रयोग इन्होंने मरे हुए साँपो, मछलियों और मांस के टुकड़ों को जारों में रखकर एक जार खुला छोड़ा तथा दूसरे को कपड़े से ढक दिया तथा तीसरे का कागज से बन्द किया। खुले जारों में मक्खियों ने मांस पर अण्डे दिए जिनसे डिम्भक निकले। बन्द जारों में मक्खियाँ ही घुस पाईं। अतः इनके मांस में डिम्भक नहीं दिखाई दिए। इन प्रयोगों से सिद्ध हुआ कि मक्खियों के डिम्भक सड़े-गले मांस से अपने आप उत्पादन से नहीं बनते, उन अण्डों से निकलते हैं जिन्हें मक्खियाँ मांस में देती हैं। रेडी के बाद ही डच वैज्ञानिक
एन्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक का प्रयोग
एन्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक ने ऐसे सरल सूक्ष्मदर्शी तैयार किए जो वस्तु को 300 गुना तक बड़ी करके दिखाते थे। इन सूक्ष्मदर्शियों को सहायता से उन्होने तालाबों, पोखरों आदि के गन्दे जल, बरसाती जल आदि स्थानों में अनेक सूक्ष्म जीवाणु एवं प्रोटोजोआ देखे। सूक्ष्मजीवों की इस खोज ने स्वतः उत्पादन में वैज्ञानिकों की आस्था को फिर से उभार दिया।
जैव-विकास
जीवों व वनस्पतियों के वर्तमान स्वरूप को देखकर उनके वास्तविक निर्माण अर्थात्, प्रारम्भिक सरलतम् स्वरूप से उनके विकास व वर्तमान स्वरूप की जिज्ञासा ने जीव वैज्ञानिकों को उनके विस्तृत अध्ययन के लिए प्रेरित किया। जन्तुओं की लगभग 10 लाख एककोशिकीय प्रोटोजोआ से विशालतम् व्हेल मछली स्तनी तक व पादपों की लगभग 5 लाख जातियो वाइरस, बैक्टीरिया व एककोशिकीय शैवाल से विशालकाय सिकोया का अलग-अलग अध्ययन इसी परिप्रेक्ष्य में किया गया है। अऑपरिन के अनुसार जीव की उत्पत्ति करोड़ों-अरबों वर्ष पूर्व होने की स्थिति से, वर्तमान स्थिति
में विद्यमान जीव व उनकी भिन्न-भिन्न जातियों कैसे विकसित हुई यह एक रहस्य था, जिसका समुचित हल जैव-विकास के अध्ययन के अन्तर्गत किया गया। धारणा के रूप में जीव की प्रारम्भिक सरल संरचना में क्रमिक परिवर्तनों द्वारा जटिलतम एवं संगठित उच्य कोटि की जातियों का निर्माण हुआ। ये परिवर्तनावरण तथा परिस्थिति में परिवर्तनों के कारण ही सम्भव हुआ है। जीवो के इस परिवर्तन को हो जैव-विकास कहा गया। "जैव-विकास धीमी गति से होने वाला यह अधिक परिवर्तन है। जिसके फलस्वरूप आदिकाल के प्रथम जीव से वर्तमान में पाये जाने वाले जटिल व उच्च कोटि के प्राणियों एवं पादपों का क्रमिक उद्विकास हुआ।"
जैव-विकास के सिद्धान्त की विशेषताएँ
जैव-विकास के अध्ययन से प्रकृति के महत्त्वपूर्ण रहस्यों का ज्ञान होता है-
1. वातावरणीय परिस्थितियाँ सदैव एक जैसी या स्थायी नहीं होती है अपितु परिवर्तनशील होती हैं।
2. आदि काल से वर्तमान तथा भविष्य में होने वाले परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में जैव-विकास एक अनवरत, मन्द गति से होने वाली प्रक्रिया है।
3. करोड़ों वर्ष पूर्व सरल संरचना के पूर्वजों से क्रमिक परिवर्तनों द्वारा नये-नये व्यवस्थित व जटिल वर्तमान जीवों का उद्विकास हुआ।
4. एक प्रकार के जीवों से दूसरे प्रकार के जीवों के निर्माण की प्रक्रिया स्पष्ट दर्शित न हो पाने की स्थिति में अन्तरक्रमण जीवों की उपस्थिति से नई जातियों को उत्पत्ति को समर्थन मिलता है।
5. एक ही पूर्वज जाति की विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाली आबादियों में विभिन्न प्रकार के अनुकूलनों से विभिन्न दिशाओं में नई-नई जातियों का विकास हुआ है।
6. वर्तमान की कोई भी दो या अधिक जीव-जातियों कालान्तर में किसी न किसी समय एक ही पूर्वज को वंशज हैं अर्थात् एक-दूसरे को निकट या दूर की रिश्तेदार हैं। अतः सभी जीवों का विकास एकवंशीय के रूप में हुआ है।
7. जीवित जातियों में जैव-विकास सम्भव होता है, अजीवित वस्तुओं में केवल बाह्य परिवर्तन होता है। जैव-विकास के