भ्रूण किसे कहते है
स्टुला के उपरान्त भ्रूण परिवर्धन (Post Gastrulation Embryonic Development)
सर्वप्रथम तंत्रिका पट्ट (neural; plate) से तंत्रिका नाल (neural canal) का निर्माण होता है, परिणामस्वरूप मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु निर्मित होते हैं। नोटोकॉर्ड (notochord) का निर्माण तंत्रिका नाल के ठीक नीचे होता है। ठीक इसी समय हृदय, रुधिरवाहिनियाँ, आहारनाल एवं अन्य विभिन्न अंगों का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है। भ्रूण में सभी अंग तंत्रों के निर्माण की प्रक्रिया भ्रूण के चार सप्ताह की आयु तक प्रारम्भ हो जाती है।
भ्रूण में जनदों (gonads) का निर्माण बोली छठें सप्ताह में प्रारम्भ हो जाता है। दो माह पूरा होने के पश्चात मानव भ्रूण को फीटस (foetus) कहते हैं। यह समय भ्रूणीय विकास का सर्वाधिक संवेदनशील काल है।
2. मध्य या द्वितीय त्रैमाही (Mid or second trimester) :
अस्थिल कंकाल (bony skeleton) का निर्माण चौथे माह में प्रारम्भ हो जाता है, साथ ही शरीर के ऊपर एक रक्षात्मक आवरण (protective covering) का निर्माण भी हो जाता है।
पाँचवें माह में भ्रूण (foetus) के सिर पर बाल (hairs) आ जाते हैं तथा सम्पूर्ण शरीर पर भी महीन/मुलायम बाल लैनूगो (lanugo) आ जाते हैं। भ्रूण/फीटस की समस्त रचनाएँ व अंग छठें माह तक पूर्ण निर्मित हो जाते हैं। यह मानव का एक छोटा रूप धारण कर लेता है तथा भ्रूण हृदय की धड़कन को माँ के उदर के ऊपर से सुना जा सकता है।
किसी कारणवश (उत्तेजना/दुर्घटना के कारण) यदि भ्रूण/फीटस गर्भाशय से बाहर आ जाता है तो वह हाथ-पैर चलाता है, साँस लेने का प्रयास करता है एवं रोता भी है। भ्रूण/फीटस कुछ ही समय में मर जाता है। यह समय भ्रूण/फीटस के लिए अति हानिकारक (crucial) होता है।
3. अन्तिम त्रैमाही (Last trimester) :
गर्भकाल के अन्तिम त्रैमाही में मानव भ्रूण/फीटस के आकार एवं भार में शीघ्रता से वृद्धि होती है। मस्तिष्क, नवीन तंत्रिकाओं एवं उनके आपसी सम्बंध विकसित/निर्मित होते हैं। माता से प्रतिरक्षी इस काल में भ्रूण/फीटस को प्राप्त होते हैं जिनसे परिवर्धनशील शिशु को प्रतिरक्षण प्राप्त होता है। जन्म से पूर्व अधिकांश शिशुओं में शरीर के ऊपर के बारीक/मुलायम बाल लैनूगो (lanugo) समाप्त/नष्ट हो जाते हैं।
इसी समय भ्रूण/फीटस में पकड़ने व चूसने के प्रतिवर्त (reflexes of grasping and sucking) का विकास होता है। आठवें माह से भ्रूण में वसा का जमाव होने लगता है और उसके शरीर का विकास लगभग पूर्ण हो जाता है।
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अपरा या भ्रूण का पोषण (Nutrition of Placenta or Embryo)
अपरा (placenta) यूथिरिया अधिवर्ग के स्तनधारी प्राणियों में पाया जाता है। मानव एवं उच्च स्तनधारियों में भ्रूण, माता से जिस रचना द्वारा सम्बन्धित रहता है उसे अपरा (placenta) कहते है।
ब्लास्टुला अवस्था तक भ्रूण गर्भाशय से नहीं जुड़ा होता और इस समय तक यह स्वयं के पोषण पर निर्भर रहता है। इसके बाद ब्लास्टुला गर्भाशय (uterus) की दीवार में प्रत्यारोपित होकर उससे पोषण प्राप्त करने लगता है। अपरा का विकास (Development of Placenta) अपरा का विकास भ्रूणीय कोरिऑन (embryonic chorion) तथा गर्भाशय की भित्ति दोनों से होता है।
अपरा के कार्य (function of placenta)
अपरा भ्रूण (फीट्स) एवं माता के मध्य ऑक्सीजन एवं कार्बन डइऑक्साइड का आदान-प्रदान कर श्वसन में सहायक होता है।
उत्सर्जन (Excretion) अपरा उत्सर्जन में भी सहायक होता है। भ्रूण में उपापचय क्रिया के द्वारा बने अपशिष्ट पदार्थ अपरा द्वारा माता के रुधिर में विसरित हो जाते हैं।
प्रतिरक्षा (Immunity) एण्टीबॉडीज माता के रुधिर से गर्भ में अपरा द्वारा ही पहुँचते हैं, जो डिप्थीरिया, खसरा, चेचक, आदि से भ्रूण की सुरक्षा करते हैं। माता के रोग ग्रस्त हो जाने पर अपरा गर्भ में पहुँचने वाले रोगाणुओं के लिए अवरोधक (Barrier) का कार्य करता है। अपरा चयनात्मक अवरोधक (selective barrier) की भाँति कार्य करता है।
अपरा पाँच हॉमोंन स्रावित करता है जो गर्भावस्था बनाए रखने तथा शिशु जन्म में सहायता करते हैं। अपरा माता के रुधिर से लाभदायक पदार्थों को तो भ्रूण में प्रवेश की अनुमति देता है, किन्तु हानिकारक पदार्थों व जटिल प्लाज्मा प्रोटीन्स को भ्रूण में प्रवेश नही करने देता। परन्तु विषाणु आदि रोगजनक अपरा द्वारा भ्रूण में पहुँच जाते हैं।