सविनय अवज्ञा आंदोलन दांडी मार्च और नमक सत्याग्रह
नमक यात्रा (दाण्डी यात्रा) और सविनय अवज्ञा आंदोलन महात्मा गाँधी को देश को एकजुट करने के लिए नमक एक शक्तिशाली प्रतीक के रूप में दिखाई पड़ा।
महात्मा गाँधी का यह पत्र एक अल्टीमेटम (चेतावनी) की तरह था। उन्होंने लिखा था कि अगर 11 मार्च तक उनकी माँगें नहीं मानी गईं तो कांग्रेस सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ देगी।
इरविन झुकने को तैयार नहीं थे। फलस्वरूप, महात्मा गाँधी ने अपने 78 विश्वस्त वॉलंटियरों के साथ नमक यात्रा शुरू कर दी। यह यात्रा साबरमती में गांधीजी के आश्रम से 240 किलोमीटर दूर दांडी नामक गुजराती तटीय कस्बे में जाकर खत्म होनी थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रमुख नेता गाँधीजी की टोली ने 24 दिन तक हर रोज लगभग 10 मील का सफर तय किया। गांधीजी जहाँ भी रुकते हजारों लोग उन्हें सुनने आते। इन सभाओं में गाँधीजी ने स्वराज का अर्थ स्पष्ट किया और आह्वान किया कि लोग अंग्रेजों की शांतिपूर्वक अवज्ञा करें यानी अंग्रेजों का कहा न मानें।6 अप्रैल को वह दांडी पहुँचे और उन्होंने समुद्र का पानी उबालकर नमक बनाना शुरू कर दिया। यह नमक कानून तोड़ने का आंदोलन था यहीं से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होता है। यह आंदोलन असहयोग आंदोलन के मुकाबले किस तरह अलग था? इस बार लोगो को न केवल अंग्रेजों का सहयोग न करने के लिए बल्कि औपनिवेशिक कानूनों का उल्लंघन करने के लिए आह्वान किया जाने लगा। देश के विभिन्न भागों में हजारों लोगों ने नमक कानून तोड़ा और सरकारी नमक कारखानों के सामने प्रदर्शन किए। आंदोलन फैला तो विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया जाने लगा। शराब की दुकानों की पिकेटिंग होने लगी। किसानों ने लगान और चौकीदारी कर चुकाने से इनकार कर दिया। गाँवों में तैनात कर्मचारी इस्तीफे देने लगे। बहुत सारे स्थानों पर जंगलों में रहने वाले वन कानूनों का उल्लंघन करने लगे। वे लकड़ी बीनने और मवेशियों को चराने के लिए आरक्षित वनों में घुसने लगे। इन घटनाओं से चिंतित औपनिवेशिक सरकार कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार करने लगी। बहुत सारे स्थानों पर हिंसक टकराव हुए।
1930 का सविनय अवज्ञा आंदोलन
अप्रैल, 1930 में जब महात्मा गाँधी के समर्पित साथी अब्दुल गफ्फार खान को गिरफ्तार किया गया तो गुस्साई भीड़ सशस्त्र बख्तरबन्द गाड़ियों और पुलिसकी गोलियों का सामना करते हुए सड़कों पर उतर आई। वहुत सारे लोग मारे गए। महीने भर बाद जब महात्मा गाँधी को भी गिरफ्तार कर लिया गया तो शोलापुर के औद्योगिक मजदूरों ने अंग्रेजी शासन का प्रतीक पुलिस चौकियों, नगरपालिका भवनों, अदालतों और रेलवे स्टेशनों पर हमले शुरू कर दिए। भयभीत सरकार ने निर्मम दमन का रास्ता अपनाया। शांतिपूर्ण सत्याग्रहियों पर हमले किए गए, औरतों व बच्चों को मारा-पीटा और लगभग एक लाख लोग गिरफ्तार किए गए।महात्मा गाँधी ने एक बार फिर आंदोलन वापस ले लिया।
गाँधी-इरविन समझौता
5 मार्च 1931 को उन्होंने इरविन के साथ एक समझौते पर दस्तखत कर दिए। इस गाँधी-इरविन समझौते के जरिए गाँधीजी ने लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी। (पहले गोलमेज सम्मेलन का कांग्रेस बहिष्कार कर चुकी थी)। इसके बदले सरकार राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राजी हो गई। दिसंबर, 1931 में सम्मेलन के लिए गाँधीजी लंदन गए। यह वार्ता बीच में ही टूट गई और उन्हें निराश वापस लौटना पड़ा। यहां आकर उन्होंने पाया कि सरकार ने नए सिरे से दमन शुरू कर दिया है। गफ्फार खान और जवाहरलाल नेहरू, दोनों जेल में थे। कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। सभाओं, प्रदर्शनों और बहिष्कार जैसी गतिविधियों को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए जा रहे थे। भारी आशंकाओं के बीच महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन दोबारा शुरू कर दिया। यह आंदोलन लगभग एक वर्ष तक चला किन्तु सन् 1934 तक आते-आते इसकी गति धीमी पड़ने लगी थी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन का देश पर प्रभाव
सविनय अवज्ञा आंदोलन की विशेषता यह थी कि गुजरात के पाटीदार और उत्तर प्रदेश के जाट जैसे गाँवों के सम्पन्न किसान समुदाय सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय थे। ये लोग व्यावसायिक फसलों की खेती करने के कारण व्यापार में मंदी और गिरती कीमतों से वे बहुत परेशान थे।
परेशानी का कारण यह भी था कि जब उनकी नकद आय समाप्त होने लगी तो उनके लिए सरकारी लगान चुकाना कठिन हो गया। सरकार लगान कम करने को तैयार नहीं थी। चारों तरफ असंतोष था। सम्पन्न किसानों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का बढ़-चढ़कर समर्थन किया। उन्होंने अपने समुदायों को एकजुट किया और कई बार अनिच्छुक सदस्यों बहिष्कार के लिए मजबूर किया। उनके लिए स्वराज की लड़ाई भारी लगान के खिलाफ लड़ाई थी। लेकिन जब 1931 में लगानों के घटे बिना आंदोलन वापस ले लिया गया तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। फलस्वरूप,जब 1932 में आंदोलन दुबारा शुरू हुआ तो उनमें से बहुतों ने उसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया। गरीब किसान केवल लगान में कमी नहीं चाहते थे। उनमें से बहुत सारे किसान जमींदारों से पट्टे पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे। महामंदी लम्बी खिंची और नकद आमदनी गिरने लगी तो छोटे पट्टेदारों के लिए जमीन का किराया चुकाना भी मुश्किल हो गया। वे चाहते थे कि उन्हें जमीदारों को जो भाड़ा चुकाना था उसे माफ कर दिया जाए। इसके लिए उन्होंने कई रेडिकल आंदोलनों में हिस्सा लिया जिनका नेतृत्व अकसर समाजवादियों और कम्युनिस्टों के हाथों में होता था। अमीर किसानों और जमींदारों की नाराजगी के भय से कांग्रेस 'भाड़ा विरोधी' आंदोलनों को समर्थन देने में प्रायः हिचकिचाती थी। इसी कारण गरीब किसानों और कांग्रेस के बीच सम्बन्ध अनिश्चित बने रहे।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों ने बड़े पैमाने पर लाभार्जन किया था और वे आर्थिक रूप से सक्षम बन चुके थे। इस वर्ग ने अपने व्यवसाय के प्रसार के लिए उन्होंने ऐसी औपनिवेशिक नीतियों का विरोध किया जिनके कारण उनकी व्यावसायिक गतिविधियों में रुकावट आती थी। वे विदेशी वस्तुओं के आयात से सुरक्षा चाहते थे और रुपया-स्टर्लिंग विदेशी विनिमय अनुपात में बदलाव चाहते थे जिससे आयात में कमी आ जाए। व्यावसायिक हितों को संगठित करने के लिए उन्होंने 1920 में भारतीय औद्योगिक एवं व्यावसायिक कांग्रेस (इंडियन इंडस्ट्रियल एण्ड कमर्शियल कांग्रेस) और 1927 में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग परिसंघ (फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्री-फिक्की) का गठन किया।
पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास और जी. डी. बिड़ला जैसे जाने-माने उद्योगपतियों के नेतृत्व में उद्योगपतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर औपनिवेशिक नियंत्रण का विरोध किया और पहले सिविल नाफरमानी आंदोलन का समर्थन किया। उन्होंने आंदोलन को आर्थिक सहायता दी और आयातित वस्तुओं को खरीदने या बेचने से इनकार कर दिया। ज्यादातर व्यवसायी स्वराज को एक ऐसे युग के रूप में देखते थे जहाँ कारोबार पर औपनिवेशिक पाबंदियों नहीं होंगी और व्यापार व उद्योग निर्वाध ढंग से फल-फूल सकेंगे।
गोलमेज सम्मेलन की विफलता के बाद व्यावसायिक संगठनों का उत्साह भी मन्द पड़ गया था। उन्हें उग्र गतिविधियों का भय था। वे लम्बी अशांति की आशंका और कांग्रेस के युवा सदस्यों में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव से डरे हुए थे। औद्योगिक श्रमिक वर्ग ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में नागपुर के अलावा और कहीं भी बहुत बड़ी संख्या में हिस्सा नहीं लिया। जैसे-जैसे उद्योगपति कांग्रेस के नजदीक आ रहे थे, मजदूर कांग्रेस से छिटकने लगे थे। फिर भी, कुछ मजदूरों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार जैसे कुछ गाँधीवादी विचारों को कम वेतन व खराब कार्यस्थितियों के खिलाफ अपनी लड़ाई से जोड़ लिया था।
सविनय अवज्ञा का इतिहास में 1930 में रेलवे कामगारों की और 1932 में गोदी कामगारों की हड़ताल हुई। 1930 में छोटा नागपुर की टिन खानों के हजारों मजदूरों ने गाँधी टोपी पहनकर रैलियों और बहिष्कार अभियानों में हिस्सा लिया। फिर भी, कांग्रेस अपने कार्यक्रम में मजदूरों की माँगों को समाहित करने में हिचकिचा रही थी। कांग्रेस को लगता था कि इससे उद्योगपति आंदोलन से दूर चले जाएंगे और साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों में फूट पड़ेगी।